रतिक्रिया न सिर्फ
मानवों के जीवन
में बल्कि संपूर्ण
जीवों के जीवन
में महत्वपूर्ण स्थान
रखती है। रतिक्रिया
के माध्यम से
नर एवं मादा
के पृथक-पृथक
शरीर एकाकार की
भावना से एक
होकर चरमानन्द को
प्राप्त करते ही
हैं, साथ ही
स्वस्थ-सुन्दर संतान का
भी सृजन करते
हैं।
प्रेम सहित स्त्री
सहवास गृहस्थ धर्म
का मूल मंत्र
है। शास्त्राकारों द्वारा
सहवास के जो
नियम बनाए गए
थें, वे आज
भी पूर्णतया वैज्ञानिक
हैं। यदि संयम
से उन नियमों
का पालन किया
जाए तो व्यक्ति
दीर्घायु, कांतिवान, बौद्धिक होने
के साथ-साथ
स्वस्थ, सुंदर तथा परोपकारी
संतान को जन्म
दे सकता है।
आज के समय
में मैथुन का
अर्थ सिर्फ आनंद
प्राप्त करने तक
ही सीमित रह
गया है जबकि
इसका अर्थ ‘संतानोत्पत्ति’
से ग्रहण किया
जाता है। दिन-रात, सुबह-शाम जब
भी मर्जी करती
है, पुरूष स्त्री
के साथ संभोगरत
होकर अपनी इच्छा
की पूर्ति कर
लेता है। इससे
क्षणिक शारीरिक संतुष्टि तो
मिल सकती है
किन्तु श्रेष्ठ संतानोत्पत्ति की
कामना पूरी नहीं
हो सकती है।
कामशास्त्र
के आचार्यों के
अनुसार रात्रि के प्रथम
पहर में संभोग
द्वारा उत्पन्न संतान अल्पजीवी
होती है। द्वितीय
प्रहर से दरिद्र
पुत्र तथा अभागी
कन्या पैदा होती
है। तृतीय प्रहर
के मैथुन से
निस्तेज एवं कुबुद्धि
पुत्र या क्रोधी
कन्या उत्पन्न होती
है, रात्रि के
चतुर्थ प्रहर की संतान
स्वस्थ, बुद्धिमान, आस्थावान, धर्मपरायण
तथा आज्ञाकारी होती
है। दिन में
गर्भधारण के लिए
की गई रतिक्रिया
सर्वथा निषेध है। इस
समय की संतान
रोगी, अल्पजीवी, दुराचारी,
एवं अधर्मी होती
है। प्रातः और
सायंकाल में की
गई रतिक्रिया विशेषकर
ब्रह्ममुहुर्त में उत्पन्न
कामवेग विनाश का कारण
सिद्ध होती है।
संभोग के बाद
गर्भधारण करने से
पुत्र होगा या
पुत्री, इसकी जिज्ञासा
प्रायः सभी दंपति
को होती है।
आज के समय
में लिंग की
जानकारी वैज्ञानिक विधियों से
प्राप्त करना कानूनी
जुर्म है। प्रसिद्ध
जीवशास्त्रियों एवं कामशास्त्र
के आचार्यों द्वारा
बताए गए नियमों
से यह जाना
जा सकता है
कि गर्भ में
पुत्र पल रहा
है या पुत्री।
महर्षि वाग्भट्ट के मतानुसार
मैथुन काल में
स्त्री के दायें
अंगों पर अधिक
दबाव पड़ने से
पुत्र बायें अंगों
पर अधिक दबाव
पड़ने से पुत्री
का प्राप्ति होती
है।
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